१८.१६ – तत्रैवं सति कर्तारम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

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श्लोक

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।

पद पदार्थ

एवं सति – जब कि यह इस प्रकार है (अर्थात् जीवात्मा के कार्य परमात्मा की अनुमति पर निर्भर हैं)
तत्र – अपने कार्यों में
केवलम् आत्मानं तु – स्वयं को ही
कर्तारं – कर्ता के रूप में
यः पश्यति – जो व्यक्ति देखता है
स: दुर्मतिः – वह इसे गलत देखता है
अकृत बुद्धित्वात् – ज्ञान (शास्त्र के माध्यम से जो आत्मा के बारे में सिखाता है) प्राप्त नहीं हुआ है
न पश्यति – वास्तव में (वास्तविक कर्ता को) नहीं समझता है

सरल अनुवाद

जब कि यह इस प्रकार है (अर्थात् जीवात्मा के कार्य परमात्मा की अनुमति पर निर्भर हैं), जो व्यक्ति अपने कार्यों में स्वयं को ही कर्ता के रूप में देखता है, वह वास्तव में (वास्तविक कर्ता को) नहीं समझता है, क्योंकि वह इसे गलत देखता है, उसे ज्ञान (शास्त्र के माध्यम से जो आत्मा के बारे में सिखाता है) प्राप्त नहीं हुआ है ।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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