१८.१७ – यस्य नाहंकृतो भावो

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

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श्लोक

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वाऽपि स इमान् लोकान् न हन्ति न निबध्यते।।

पद पदार्थ

यस्य भाव: – (कर्तापन पर) जिसके विचार
न अहंकृत: – “मैं कर्ता हूँ” के अभिमान से उत्पन्न नहीं हो रहे हो
यस्य बुद्धि: – जिसकी बुद्धि
न लिप्यते – “इस कर्म का फल मेरा है”, “यह कर्म मेरा है” जैसे विचारों से मुक्त है
स: – वह
इमान् लोकान् हत्वा अपि – यदि इस विश्व के सभी प्राणियों को (युद्ध में) मार भी डाले
न हन्ति – तो भी वह मारने वाला नहीं माना जाएगा
न निबध्यते – ऐसी हत्या के परिणामस्वरूप वह इस संसार (भौतिक क्षेत्र) में नहीं बंधेगा

सरल अनुवाद

जिसके विचार “मैं कर्ता हूँ” के अभिमान से उत्पन्न नहीं हो रहे हो, जिसकी बुद्धि “इस कर्म का फल मेरा है”, “यह कर्म मेरा है” जैसे विचारों से मुक्त है, वह यदि इस विश्व के सभी प्राणियों को (युद्ध में) मार भी डाले, तो भी वह मारने वाला नहीं माना जाएगा; ऐसी हत्या के परिणामस्वरूप वह इस संसार (भौतिक क्षेत्र) में नहीं बंधेगा।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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