१८.३१ – यया धर्मम् अधर्मं च

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

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श्लोक

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।

पद पदार्थ

पार्थ – हे पार्थ!
यया – जिस ज्ञान से
धर्मम् अधर्मं च – धर्म और अधर्म
कार्यम् अकार्यं एव च – ‘करने योग्य’ और ‘न करने योग्य’ कार्यों
अयथावत् प्रजानाति – मनुष्य भ्रांतिपूर्वक बोध करता है
सा बुद्धिः – ऐसा ज्ञान
राजसी – रजो गुण से उत्पन्न होता है

सरल अनुवाद

हे पार्थ! जिस ज्ञान से मनुष्य धर्म और अधर्म का तथा ‘करने योग्य’ और ‘न करने योग्य’ कार्यों का भ्रांतिपूर्वक बोध करता है, ऐसा ज्ञान रजो गुण से उत्पन्न होता है।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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