श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसाऽऽवृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।
पद पदार्थ
पार्थ – हे कुन्तीपुत्र!
या – जो ज्ञान
तमसा आवृता – तमो गुण से छादित है
अधर्मं धर्मम् इति मन्यते – जो अधर्म को धर्म मानकर भ्रमित होता है
सर्वार्थान् – समस्त वस्तुओं (जो पहले से ही विद्यमान हैं और प्राप्त करने योग्य हैं)
विपरीतान् च (मन्यते) – विपरीत रूप से समझता है
सा बुद्धिः – वह ज्ञान
तामसी – तमो गुण से उत्पन्न होता है
सरल अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! जो ज्ञान तमो गुण से छादित है, जो अधर्म को धर्म मानकर भ्रमित होता है तथा जो समस्त वस्तुओं को (जो पहले से ही विद्यमान हैं और प्राप्त करने योग्य हैं) विपरीत रूप से समझता है, वह तमो गुण से उत्पन्न होता है।
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
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