श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माध्युध्यस्व भारत ॥
पद पदार्थ
इमे देहा: – इन प्रत्यक्ष शरीरों
नित्यस्य – नित्य ( जिसका प्रारंभ न हो )
अनाशिन: – जिसका विनाश न हो
अप्रमेयस्य – चेतन ( चित) होने के नाते यह भोक्ता है और अचेतन ( अचित) वस्तु से अलग है जो भोग वस्तु है |
शरीरिणः – आत्मा के लिए
अन्तवन्त: उक्ता: – शास्त्र में कहा गया है कि ( कर्मों के परिणामों को भोगने के लिए आवश्यक है, इसलिए कर्म मिट जाने पर ) उनका नाश हो जाता है
भारत – हे भरतवंशी !
तस्मात् – इसलिए
युध्यस्व – युद्ध करो
सरल अनुवाद
हे भरतवंशी ! आत्मा जो नित्य, अविनाशी और चेतन ( चित ) है, जो भोक्ता है और अचेतन ( अचित) वस्तु से अलग है जो भोग वस्तु है | शास्त्र में कहा गया है कि ( कर्मों के परिणामों को भोगने के लिए आवश्यक है, इसलिए कर्म मिट जाने पर ) इन प्रत्यक्ष शरीरों का नाश हो जाता है |इसलिए युद्ध करो |
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
आधार – http://githa.koyil.org/index.php/2-18/
संगृहीत – http://githa.koyil.org
प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org