२.१८ – अन्तवन्त इमे देहा

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<<अध्याय २ श्लोक १७

श्लोक

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माध्युध्यस्व भारत ॥

पद पदार्थ

इमे देहा: – इन प्रत्यक्ष शरीरों
नित्यस्य – नित्य ( जिसका प्रारंभ न हो )
अनाशिन: – जिसका विनाश न हो
अप्रमेयस्य – चेतन ( चित) होने के नाते यह भोक्ता है और अचेतन ( अचित) वस्तु से अलग है जो भोग वस्तु है |
शरीरिणः – आत्मा के लिए
अन्तवन्त: उक्ता: – शास्त्र में कहा गया है कि ( कर्मों के परिणामों को भोगने के लिए आवश्यक है, इसलिए कर्म मिट जाने पर ) उनका नाश हो जाता है
भारत – हे भरतवंशी !
तस्मात् – इसलिए
युध्यस्व – युद्ध करो

सरल अनुवाद

हे भरतवंशी ! आत्मा जो नित्य, अविनाशी और चेतन ( चित ) है, जो भोक्ता है और अचेतन ( अचित) वस्तु से अलग है जो भोग वस्तु है | शास्त्र में कहा गया है कि ( कर्मों के परिणामों को भोगने के लिए आवश्यक है, इसलिए कर्म मिट जाने पर ) इन प्रत्यक्ष शरीरों का नाश हो जाता है |इसलिए युद्ध करो |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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