२.४६ – यावानर्थ उदपाने

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

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श्लोक

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान् सर्वेषु
वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥

पदपदार्थ

सर्वत : सम्प्लुतोदके उदपाने –   चारों तरफ पानी से भरा हुआ जलाशय में
(वह,जो पानी का उपयोग करना चाहता है)
यावान अर्थ: – उसके लिए जितना पानी चाहिए
तावान् (यथा उपादीयते) –  उतना  ही जैसे स्वीकार करता है
(तथा – उसी  प्रकार)
सर्वेषु वेदेषु – सभी वेदों में
ब्राह्मणस्य – एक वैदिक [वेदों का अनुयायी]
विजानत : – बुद्धिमान मुमुक्षु के लिए (जो मोक्ष की इच्छा रखता है)
यावान् (एव उपादेय:) – जो आवश्यक है (मोक्ष के साधन के रूप में) वही स्वीकार किया जाता है|  [इसका तात्पर्य यह है कि वेदों के सभी पहलुओं को मुमुक्षों द्वारा स्वीकार और अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है]।

सरल अनुवाद

चारों ओर पानी से भरा हुआ जलाशय से, जो पानी का उपयोग करना चाहता है, वो केवल उतना ही स्वीकार करता है जितना उसे आवश्यक है | उसी तरह, एक बुद्धिमान मुमुक्षु (जो मोक्ष की इच्छा रखता है) के लिए, एक वैदिक [वेदों का अनुचरण करनेवाला  ] होते हुए भी, सभी वेदों में, केवल वही स्वीकार किया जाता है जो (मोक्ष के साधन के रूप में) आवश्यक है [मतलब यह है कि वेदों के सभी पहलू मुमुक्षुओं द्वारा स्वीकार और अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है]।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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