३.४१ – तस्मात् त्वमिन्द्रियाण्यादौ

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ३

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श्लोक

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥

पद पदार्थ

हे भरत ऋषभ: – हे भरत वंश के नेता !
तस्मात् – जैसे पहले बताया गया है, ज्ञान योग का अभ्यास करना कठिन है
त्वं – तुम ( जो स्वाभाविक से ज्ञानेंद्रीय से प्रभावित कर्मों में जुड़े हो )
आदौ – मोक्ष साधन का अभ्यास शुरू करते हुए
इन्द्रियाणि – सारे इन्द्रियों को
नियम्य – कर्म योग में शामिल करना
ज्ञान विज्ञान नाशनम् – वो जो आत्मा के प्राकृतिक गुण के यतार्थ ज्ञान का विनाश करता है
एनं – वासनाओं के रूप में
पाप्मानं – शत्रु
प्रजहि – नाश करो

सरल अनुवाद

हे भरत वंश के नेता ! जैसे पहले बताया गया है, ज्ञान योग का अभ्यास करना कठिन है ; तुम सारे इन्द्रियों को कर्म योग में शामिल करके, मोक्ष साधन का अभ्यास शुरू करते हुए, उस शत्रु का नाश करो जो वासनाओं के रूप में आत्मा के प्राकृतिक गुण के यतार्थ ज्ञान का विनाश करता है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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