३.४० – इन्द्रियाणि मनो बुद्धिर्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ३

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श्लोक

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिर् अस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥

पद पदार्थ

अस्य – इस वासना के लिए
इन्द्रियाणि – सारे इन्द्रियाँ
मन: – मन
बुद्धि – स्थिर बुद्धि ( इन्द्रियों के आनंद में )
अधिष्ठानं – अनुसरण करने के माध्यम हैं
उच्यते – कहा जाता है
एष: – यह वासना
एतै: – इन इन्द्रिय साधनों , मन और स्थिर बुद्धि के माध्यम से
ज्ञान – यतार्थ ज्ञान ( आत्मा के प्राकृतिक गुण के बारे में )
आवृत्य – छिपाता है
देहिनं – जीवात्मा जो शरीर से जुड़ा है
विमोहयति – विविध तरीके से व्याकुल हो जाता है

सरल अनुवाद

कहा जाता है कि सारे इन्द्रियाँ, मन और स्थिर बुद्धि ( इन्द्रियों के आनंद में ), आत्मा के प्राकृतिक गुण के बारे में अनुसरण करने के माध्यम हैं | मगर यह वासना, इन इन्द्रियों, मन और स्थिर बुद्धि के माध्यम से यतार्थ ज्ञान ( आत्मा के प्राकृतिक गुण के बारे में ) को छिपाता है और यह जीवात्मा जो शरीर से जुड़ा है , विविध तरीके से व्याकुल हो जाता है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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