६.२६ – यतो यतो निश्चरति

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ६

<< अध्याय ६ श्लोक २५

श्लोक

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥

पद पदार्थ

चञ्चलं  – स्वाभाविक रूप से चंचल
अस्थिरम् – दृढ़ता से संलग्न नहीं होना (आत्मा  से संबंधित विषयों)
मन: – मन
यत: यत: – उन पहलुओं (सांसारिक इच्छाओं) में आसक्ति के कारण
निश्चरती  –  (बाहर) खोज रहा है 
तत: तत: – उन पहलुओं से
एतत् नियम्य – वास्तविक प्रयासों से मन को मोड़कर  
आत्मनि एव – आत्मा में ही
वशं नयेत् – वशीकरण करना चाहिए (“यह आत्मा बाकी सभी वस्तुओं से अधिक आनंदमय है” के निरंतर ध्यान से)

सरल अनुवाद

स्वाभाविक रूप से चंचल , और  (आत्मा से संबंधित विषयों में) दृढ़ता से संलग्न नहीं होने के कारण, (सांसारिक इच्छाओं) की पहलुओं में आसक्ति के कारण  मन उनको खोज (बाहर) रहा है; ऐसे मन को उन पहलुओं से दूर करके,(“यह आत्मा अन्य सभी वस्तुओं से अधिक आनंदमय है” के निरंतर ध्यान द्वारा)  केवल आत्मा में ही मोहित करना चाहिए ।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

>> अध्याय ६ श्लोक २७

आधार – http://githa.koyil.org/index.php/6-26/

संगृहीत – http://githa.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org