७.२५ – नाहं प्रकाशः सर्वस्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ७

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श्लोक

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥

पद पदार्थ

योगमाया समावृतः अहम् – मैं , जो मनुष्य रूप धारण किया हूँ , माया ( अद्भुत सामर्थ्य ) से आवृत
सर्वस्य – इस दुनिया में अधिकतम लोगों के लिए
न प्रकाशः – चमक नहीं रहा हूँ ( परमात्मा के स्वरुप में )
मूढ: अयं लोक: – इस संसार के अज्ञानी लोग
मां – मुझे
अजं – उस कारण के रूप में जिसका जन्म ( कर्मानुसार ) नहीं होता
अव्ययं – अविनाशी सर्वेश्वर
न अभिजानाति – विश्लेषण नहीं करते और मुझे नहीं जानते

सरल अनुवाद

मैं , जो मनुष्य रूप धारण किया हूँ , माया ( अद्भुत सामर्थ्य ) से आवृत , इस दुनिया में अधिकतम लोगों के लिए चमक नहीं रहा हूँ ; इस संसार के अज्ञानी लोग विश्लेषण नहीं करते और मुझे उस कारण के रूप में नहीं जानते जिसका जन्म ( कर्मानुसार ) नहीं होता और जो अविनाशी सर्वेश्वर है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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