९.१२ – मोघाशा मोघकर्माणो

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ९

<< अध्याय ९ श्लोक ११

श्लोक

मोघाशा  मोघकर्माणो  मोघज्ञाना  विचेतस : |
राक्षसीमासूरीं  चैव प्रकृतिं  मोहिनीं  श्रिता:  ||

पद पदार्थ

मोहिनीं – जो (मेरी महिमा को) छिपाता है
आसूरीं राक्षसीं प्रकृतिं – दुष्ट और आसुरी स्वभाव
श्रिता – प्राप्त करके
मोघाशा – व्यर्थ इच्छाएँ रखना
मोघ कर्मणा:- व्यर्थ कर्म करना
मोघ ज्ञाना – व्यर्थ (विपरीत ) ज्ञान होना
विचेतस: च एव (भवन्ति) – अज्ञानी बन जाते हैं (सच्चे ज्ञान से रहित)

सरल अनुवाद

(मेरी महिमा को छिपाने वाले) दुष्ट और आसुरी स्वभाव को प्राप्त करके, व्यर्थ इच्छाओं, कर्मों और ज्ञान को प्राप्त करके, वे अज्ञानी (सच्चे ज्ञान से रहित) बन जाते हैं।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

>> अध्याय ९ श्लोक १३

आधार – http://githa.koyil.org/index.php/9-12/

संगृहीत – http://githa.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org