श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापा :यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते |
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकम् अश्नन्ति दिव्यान् दिवि देवभोगान् ||
पद पदार्थ
त्रै विद्या – तीन वेदों में बताए गए कर्मों में लीन ( मगर वेदांत में नहीं )
सोमपा: – जो सोम रस (इंद्र इत्यादि को प्रसन्न करने के लिए किये गये यज्ञ का अवशेष है ) पीते हैं
पूतपापा: – उन पापों से मुक्त होकर (जो स्वर्ग तक पहुँचने में बाधक हैं)
यज्ञै: – यज्ञ ( इंद्र जैसे देवताओं पर केंद्रित ) के द्वारा
माम् इष्ट्वा – मेरे( जो इन देवताओं का अन्तर्यामी हूँ ) प्रति किये जाते हैं
स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते – ( इंद्र आदि के प्रति ) स्वर्ग की प्रार्थना करते हैं
ते – वे
पुण्यं – सांसारिक कष्टों से रहित
सुरेन्द्र लोकं – देवों के प्रमुख, इंद्र की लोक
असाद्य – पहुँचते हैं
दिवि – वहाँ कई जगह
दिव्यान् – अद्भुत सुख जो इस पृथ्वी के सुखों से बहुत बेहतर हैं
देव भोगान् – देवों के सुखों
अश्नन्ति – आनंद लेते हैं
सरल अनुवाद
तीन वेदों में बताए गए कर्मों में लीन ( मगर वेदांत में नहीं ), जो सोम रस (इंद्र इत्यादि को प्रसन्न करने के लिए किये गये यज्ञ का अवशेष ) पीते हैं , उन पापों से मुक्त होकर (जो स्वर्ग तक पहुँचने में बाधक हैं), यज्ञ ( इंद्र जैसे देवताओं पर केंद्रित ) के द्वारा, जो मेरे( जो इन देवताओं का अन्तर्यामी हूँ ) प्रति किये जाते हैं और ( इंद्र आदि के प्रति ) स्वर्ग की प्रार्थना करते हैं , वे , देवों के प्रमुख, इंद्र की लोक तक पहुँचते हैं जो सांसारिक कष्टों से रहित है, वहाँ कई जगह जाते हैं और देवों के सुखों का आनंद लेते हैं जो इस पृथ्वी के सुखों से बहुत बेहतर हैं |
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
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