श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसमुदाहृतम्।।
पद पदार्थ
प्रत्युपकारार्थं – बदले में उपकार की आशा करते हुए
फलम् उद्दिश्य वा पुनः – या पुरस्कार (परलोक में) की आशा करते हुए
परिक्लिष्टं – दुःखी मन से
यत्तु दीयते – जो दान दिया जाता है
तत् – उस दान को
राजसम् उदाहृतम् – राजस दान कहा जाता है
सरल अनुवाद
जो दान दुःखी मन से, बदले में उपकार या पुरस्कार (परलोक में) की आशा करते हुए दिया जाता है, उसे राजस दान (रजोगुण की विधि से किया गया दान ) कहा जाता है।
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
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