१७.२८ – अश्रद्धया हुतं दत्तं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १७

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श्लोक

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।

पद पदार्थ

पार्थ – हे कुन्तीपुत्र!
अश्रद्धया कृतं – श्रद्धा के बिना किया जाता है
यत् – वह
हुतं – यज्ञ
दत्तं – दान
यत् तप: च तप्तम् – तप किया जाता है (वह)
असत् इति उच्यते – “असत्” कहा जाता है
तत् – उससे
प्रेत्य न – न तो मोक्ष की प्राप्ति होती है
इह च नो – न ही किसी भौतिक लाभ की प्राप्ति होती है

सरल अनुवाद

हे कुन्तीपुत्र! जो यज्ञ, दान और तप, श्रद्धा के बिना किया जाता है, वह “असत्” कहा जाता है; उससे न तो मोक्ष की प्राप्ति होती है, न ही किसी भौतिक लाभ की प्राप्ति होती है।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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