१८.५४ – ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

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श्लोक

ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति |
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं  लभते  पराम् ||

पद पदार्थ

ब्रह्मभूत: – आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझकर
प्रसन्नात्मा – अविचलित मन युक्त
न शोचति – न तो शोक करता है (मेरे अतिरिक्त किसी और वस्तु के लिए)
न काङ्क्षति – न ही इच्छा करता है (मेरे अतिरिक्त किसी और वस्तु के लिए);
सर्वेषु भूतेषु – सभी समस्त पदार्थों के प्रति (मेरे अतिरिक्त)
सम: – समभाव (विरक्ति में)
पराम् – सर्वोच्च
मद्भक्तिम् – मेरे प्रति भक्ति
लभते – प्राप्त करता है

सरल अनुवाद

जो व्यक्ति  आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानकर  ,अविचलित मन युक्त , जो (मेरे अतिरिक्त) न किसी वस्तु की  शोक करता है,  (मेरे अतिरिक्त) न किसी वस्तु की कामना करता है; (मेरे अतिरिक्त) समस्त पदार्थों के प्रति समभाव रखता है, वह मेरे प्रति सर्वोच्च भक्ति को प्राप्त करता है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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