२.१५ – यं हि न व्यथयन्त्येते

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<<अध्याय २ श्लोक १४

श्लोक

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥

पद पदार्थ

पुरुषर्षभ – हे नरपति !
येते – ऐसे प्राकृतिक सुख और दुःख के सम्बन्ध
समदुःखसुखं – सुख और दुःख को समान भाव से सोचना
धीरं – निर्भय रहना
यं पुरुषं – वो आदमी
न व्यथयन्ति – मानसिक ताकत न खोये
स: – वही आदमी
अमृतत्वाय कल्पते – मुक्त होने की योग्यता प्राप्त करता है

सरल अनुवाद

हे नरपति ! वो आदमी जो ऐसे प्राकृतिक सुख और दुःख के सम्बन्धों के प्रति समान है , जो निर्भय तथा मानसिक ताकत न खोये, वही आदमी मुक्त होने की योग्यता प्राप्त करता है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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