२.१६ – नासतो विद्यते भावो

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<<अध्याय २ श्लोक १५

श्लोक

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥

पद पदार्थ

असत: – देह ( शरीर / वस्तु) जो विद्यमान न हो ( अस्थायी)
भाव: – नित्यता जो आत्मा (चित ) का लक्षण हो
न विद्यते – अनुपस्थित
सतः – आत्मा जो उपस्थित हो
अभाव – अचित वस्तुओं का अनित्य गुण
न विद्यते – अनुपस्थित
अनयो: – इन दोनों के बारे में – देह ( शरीर / वस्तु) और आत्मा (चित )
अंत: – का अंत
त्वदर्शिभिः – सच्चे ज्ञानी
दृष्ट: – (इस प्रकार) परिचित है

सरल अनुवाद

नित्यता जो आत्मा (चित ) का लक्षण है, वो देह ( शरीर / वस्तु) में अनुपस्थित है जो अस्थायी (अनित्य) कहा जाता है; अचित (वस्तु) का अनित्य गुण आत्मा में अनुपस्थित है जो नित्य कहा जाता है ; सच्चे ज्ञानी देह ( शरीर / वस्तु) और आत्मा (चित ) इन दोनों का अंत से , (इस प्रकार) परिचित है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

>> अध्याय २ श्लोक १७

आधार – http://githa.koyil.org/index.php/2-16/

संगृहीत – http://githa.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org