२.३२ – यदृच्छया चोपपन्नं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<<अध्याय २ श्लोक ३१

श्लोक

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्‌ ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ॥

पद पदार्थ

हे पार्थ – हे पृता ( कुंती ) के पुत्र !
यदृच्छया – आनुषंगिक
उपपन्नं – घटते हैं
अपावृतं स्वर्ग द्वारं – बाधाओं को दूर करके मुक्ति प्राप्त करने का साधन बन जाते हैं
ईदृशं युद्धं – ऐसे युद्ध
सुखिनः क्षत्रियाः – भाग्यशाली राजाओं
लभन्ते – पाते हैं

सरल अनुवाद

हे पृता ( कुंती ) के पुत्र ! जब आनुषंगिक युद्ध घटते हैं , ऐसे युद्ध भाग्यशाली राजाओं को, बाधाओं को दूर करके मुक्ति प्राप्त करने का साधन बन जाते हैं |

टिप्पणी – यहाँ मुक्ति का मतलब तुरंत मोक्ष प्राप्ति नहीं है | इस बात को व्यक्त किया गया है कि सात्विक एवं धार्मिक कर्तव्य करना, भगवान विष्णु को प्रसन्न करता है और हमारे यथार्त गुण की अत्यंत अनुभूति प्राप्त करने का सही रास्ता भी वही है | इसी रास्ते के माध्यम से मुक्ति भी प्राप्त होती है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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