२.३३ – अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<<अध्याय २ श्लोक ३२

श्लोक

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥

पद पदार्थ

अथ – उसके विपरीत
त्वं – तुम
इमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं – इस धर्म युद्ध को
न करिष्यसि चेत् – अगर ( तुम) नहीं लड़ोगे
ततः – उसी कारण से
स्वधर्मं – तुम्हारे वर्णाश्रम धर्म के परिणाम ( क्षत्रिय वंश के कर्तव्य)
कीर्तिं च – और कीर्ति को
हित्वा – त्याग देने का
पापं – पाप
अवाप्स्यसि – जरूर भोगना पड़ेगा

सरल अनुवाद

पहले समझाए गये के विपरीत अगर तुम इस धर्म युद्ध को नहीं लड़ोगे, उसी कारण से, तुम्हारे वर्णाश्रम धर्म के परिणाम ( क्षत्रिय वंश के कर्तव्य) और कीर्ति को तुम त्याग दोगे और तुम्हे इस पाप को जरूर भोगना पड़ेगा |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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