२.४८ – योगस्थ: कुरु कर्माणि

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

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श्लोक

योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय  ।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं  योग उच्यते ॥

पद पदार्थ

धनञ्जय – हे अर्जुन!
सङ्गं – लगाव (राज्य, रिश्तेदारों आदि के प्रति)
त्यक्त्वा – छोड़कर
सिद्ध्यसिद्ध्यो: – प्राप्त करना और न प्राप्त करना (विजय आदि)
सम: भूत्वा – समचित्त होना
योगस्थ: – योग में स्थित होकर 
कर्माणि कुरु – अपने कर्म करो;
समत्वम् – समचित्त होना (विजय आदि को प्राप्त करना और न प्राप्त करना आदि)
योग:- योग 
उच्यते – कहा जाता है

सरल अनुवाद

हे अर्जुन! तुम  (राज्य, सम्बन्धी आदि के प्रति ) लगाव को त्यागकर, (विजय आदि) प्राप्त करने और न प्राप्त करने पर समचित्त होकर योग में स्थित होकर कर्म करते रहो। समचित्त होना (विजय प्राप्त करना और न प्राप्त करना आदि) ही योग कहा जाता है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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