२.४९ – दूरेण ह्यवरम् कर्म

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

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श्लोक

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्दि योगाद्धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥

पद पदार्थ

धनञ्जय  – हे अर्जुन!
बुद्धि योगात् –  बुद्धि के साथ किये गए कर्म (क्रिया) से भी 
कर्म – (उस बुद्धी के बिना किये गए )काम्य  (सांसारिक परिणामों के उद्देश्य से किये गए) कर्म
धूरेण अवरम हि – क्या यह बहुत हीन नहीं है?
(इसलिए )
बुद्धौ – (पहले कहे गए ) बुद्धी में
शरणं अन्विच्छ – आश्रय लें;
फलहेतव:- जिन्हे सांसारिक कामनाओं में लगाव हैं
कृपाणाः – संसारी बन जाते हैं (बंधी हुई आत्माएं)

सरल अनुवाद

हे अर्जुन! क्या (काम्य) कर्म (ऐसी बुद्धि के बिना) जिसका उद्देश्य सांसारिक परिणाम है, बुद्धि वाले कर्म (क्रिया) की तुलना में बहुत हीन नहीं है? इसलिए  तुम (पहले कहे गए ) बुद्धी में शरण लो । जो लोग सांसारिक इच्छाओं से जुड़े हैं, वे संसारी (बंधी हुई आत्माएं) बन जाते हैं  | 

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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