२.६६ – नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

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श्लोक

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य  कुतः सुखम् ॥

पद पदार्थ

अयुक्तस्य –  जिसका मन/हृदय मुझसे जुड़ा नहीं है
बुद्धि: – आत्म  ज्ञान
न अस्ति  – नहीं होगा ;
अयुक्तस्य – जिसके पास वह(आत्म) ज्ञान नहीं है
भावना – आत्मा पर ध्यान
न च (अस्थि) – घटित नहीं होता
अभावयत: – जिसे आत्म ध्यान नहीं है 
शांतिः – सांसारिक सुखों में वैराग्य
न च (अस्थि) –  नहीं होता
अशान्तस्य  – जिसे  सांसारिक सुखों में वैराग्य नहीं है
कुत : सुखम – वह परमानंद कैसे प्राप्त करेगा ?

सरल अनुवाद

जिसका चित्त मुझमें स्थिर नहीं होता, उसे आत्मज्ञान नहीं होता; जिसे  वह (आत्म) ज्ञान नहीं है,  उसे आत्म ध्यान घटित नहीं होता; जिसे आत्म ध्यान नहीं है , उसे सांसारिक सुखों में वैराग्य नहीं होता; जिसे सांसारिक सुखों में वैराग्य नहीं है, वह परमानंद कैसे प्राप्त करेगा ?

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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