श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥
पद पदार्थ
ज्ञानवान अपि – ज्ञानी भी ( शास्त्र से अभिगृहित सत्य प्राप्त करके भी )
स्वस्याः प्रकृते सदृशं – लौकिक आनंद के प्रति अपने अनन्तकाल अनुराग के कारण
चेष्टते – हमेशा लौकिक विषयों पर मुग्ध रहते हैं
( क्योंकि )
भूतानि – चित वस्तु ( आत्मा ) जब अचित ( स्थूल वस्तु) के संग रहता है
प्रकृतिं – सिर्फ उनके अनन्तकाल रूचि
यान्ति – अनुसरण होता है
( तानि – उनके लिए )
निग्रहः – शास्त्रादेश
किं करिष्यति – क्या कर सकता है ?
सरल अनुवाद
ज्ञानी भी ( शास्त्र से अभिगृहित सत्य प्राप्त करके भी ) लौकिक आनंद के प्रति अपने अनन्तकाल अनुराग के कारण , हमेशा लौकिक विषयों पर मुग्ध रहते हैं | क्योंकि चित वस्तु ( आत्मा ) जब अचित ( स्थूल वस्तु) के संग रहता है,
तब सिर्फ उनके अनन्तकाल रूचि ( इन अचित वस्तु के प्रति ) अनुसरण होता है | शास्त्रादेश उनके लिए क्या कर सकता है ?
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
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