४.७ – यदा यदा हि धर्मस्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ४

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श्लोक

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।

पद पदार्थ

भारत – हे भरतवंशी !
यदा यदा हि – जब भी
धर्मस्य – धर्म की
ग्लानि: भवति – क्षीणता होता है
अधर्मस्य – अधर्म का
अभ्युत्थानं (भवति ) – उत्थान होता है
तदा – तब
अहं – मैं
आत्मानं – अपने आप को
सृजामि – रच लेता हूँ

सरल अनुवाद

हे भरतवंशी ! जब भी धर्म की क्षीणता होता है और अधर्म का उत्थान होता है, तब मैं अपने आप को रच लेता हूँ ( कई अवतारों में प्रकट होता हूँ) ।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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