६.४ – यदा हि नेन्द्रियार्थेषु

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ६

<< अध्याय ६ श्लोक ३

श्लोक

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥

पद पदार्थ

( अयं योगी ) – यह कर्म योगी निष्ट ( अभ्यासी )
इंन्द्रियार्थेषु – ध्वनि जैसे इन्द्रिय वस्तुओं जिन्हे ज्ञानेंद्रियों से आनंद लिया जा सकता है
यदा – जब
न अनुषज्जते – अलग होना
कर्मसु – इन्द्रिय वस्तुओं के आनंद लेने के साधनों में
यदा – जब
न अनुषज्जते – अलग होना
सर्व सङ्कल्प संन्यासी – वह जो सभी लौकिक अभिलाषाओं को त्याग दिया
तदा – उस स्थिति में
योगारूढ: उच्यते – ऐसा कहा जाता है कि उसे आत्मज्ञान हो गया है

सरल अनुवाद

जब यह कर्म योगी निष्ट ( अभ्यासी ) , ध्वनि जैसे इन्द्रिय वस्तुओं जिन्हे ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से आनंद लिया जा सकता है, उनसे स्वतंत्र हो जाता है, इन्द्रिय वस्तुओं के आनंद लेने के साधनों से अलग हो जाता है और जब वह सभी लौकिक अभिलाषाओं को त्याग देता है , तब उस स्थिति में ऐसा कहा जाता है कि उसे आत्मज्ञान हो गया है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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