श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुम् अर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
पद पदार्थ
अपि च – इसके अलावा
स्वधर्मम् अवेक्ष्य – अपने ही कर्तव्य पर ध्यान दोगे ( युद्ध का कर्तव्य )
विकम्पितुं – उसको टालना ( अपने कर्तव्य )
न अर्हसि – उचित नहीं है
क्षत्रियस्य – एक राजा को
धर्म्यात् युद्धात् – अपने धर्म के लिये युद्ध करने से बेहतर
अन्यत् – और कोई
श्रेय: – सम्माननीय
न विद्यते हि – अनुपस्थित नहीं हैं ?
सरल अनुवाद
इसके अलावा, अपने ही कर्तव्य पर ध्यान दोगे ( युद्ध का कर्तव्य ) तो भी उसको टालना ( अपने कर्तव्य ) उचित नहीं है; एक राजा को अपने धर्म के लिये युद्ध करने से बेहतर और कोई सम्माननीय बात उपस्थित है क्या ?
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
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