५.१९ – इहैव तैर्जित: सर्गो

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ५

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श्लोक

इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन: |
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिता: ||

पद पदार्थ

येषां मन: – वो जिनके मन
साम्ये – आत्माओं के समतुल्यता ( जैसे पिछले श्लोक में कहा गया था )
स्थितं – दृढ़ता से केंद्रित
तै: – उनसे
इह एव: – इस वर्तमानकालिक अभ्यास स्थिति में ही
सर्ग: – इस सांसारिक (बंधन ) को
जित: – जीत लेते हैं
निर्दोषं – दोष से मुक्त ( इस सांसारिक विषयों से सम्बंधित होने का दोष )
समं हि – ( उसके कारण ) आत्मा जो समान है
ब्रह्म – ब्रह्म के नाम से जाना जाता है ( आत्मा )
तस्माद् – इसलिए
ते – वे
ब्रह्मणि – ब्रह्म में
स्थिता: – अच्छी तरह से स्थित हैं

सरल अनुवाद

वो जिनके मन आत्माओं के समतुल्यता में दृढ़ता से केंद्रित हो ( जैसे पिछले श्लोक में कहा गया था ) , इस वर्तमानकालिक अभ्यास स्थिति में ही इस सांसारिक (बंधन ) को जीत लेते हैं | ब्रह्म वो है जो दोष से मुक्त हो ( इस सांसारिक विषयों से सम्बंधित होने का दोष ) और ( उसके कारण ) आत्मा जो समान है, ब्रह्म के नाम से जाना जाता है | इसलिए वे ( जिनके बारे में प्रारंभ में बताया गया था ) ब्रह्म में अच्छी तरह से स्थित हैं |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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