६.९ – सुहृन्मित्रार्युदासीन

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ६

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श्लोक

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु |
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ||

पद पदार्थ

सुहृन् मित्र अरि उदासीन मध्यस्थ द्वेष्य बन्धुषु – शुभचिंतक , मित्र , शत्रु , असंबद्ध व्यक्ति, तटस्थ व्यक्ति , जिनके अंदर स्वाभाविक घृणा है , जिनके अंदर स्वाभाविक स्नेह है, इन सब के प्रति
साधुषु अपि – अच्छे लोगों के प्रति
पापेषु च – पापियों के प्रति
सम बुद्धि: – जो समान रूप से प्रवृत्त हो
विशिष्यते – श्रेष्ठ ( योग अभ्यास करने वालों के बीच )

सरल अनुवाद

वह जो शुभचिंतक , मित्र , शत्रु , असंबद्ध व्यक्ति, तटस्थ व्यक्ति , जिनके अंदर स्वाभाविक घृणा है , जिनके अंदर स्वाभाविक स्नेह है, अच्छे लोगों के प्रति, पापियों के प्रति , इन सब के प्रति समान रूप से प्रवृत्त है , वह श्रेष्ठ ( योग अभ्यास करने वालों के बीच ) है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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