१०.३३ – अक्षराणाम् अकारोऽस्मि

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १०

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श्लोक

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः ॥

पद पदार्थ

अक्षराणां – वर्णमाला में ,
अकार: अस्मि – मैं अकारं (अ) हूँ
सामासिकस्य च – समास शब्द निर्माण में
द्वन्द्वः अस्मि – मैं द्वंद्व समास हूँ (समास शब्द जिसके निर्माण में दोनों शब्दों की महत्वता हो )
अक्षयः काल: – अंतहीन समय
अहम् एव – मैं हूँ
विश्वतोमुखः – वह जिसका चारों दिशाओं के प्रत्येक दिशा में एक मुख हो
धाता – ब्रह्मा जो सृजक हैं (उस ब्रह्मांड के भीतर की संस्थाओं को, जिसको वे नियंत्रित करते हैं)
अहं – मैं

सरल अनुवाद

वर्णमाला में,मैं अकारं (अ) हूँ ; समास शब्द निर्माण में, मैं द्वंद्व समास (समास शब्द जिसके निर्माण में दोनों शब्दों की महत्वता हो ) हूँ; मैं अंतहीन समय हूँ और मैं ब्रह्मा सृजक (उस ब्रह्मांड के भीतर की संस्थाओं को, जिसको वे नियंत्रित करते हैं) हूँ जिसका चारों दिशाओं के प्रत्येक दिशा में एक मुख हो |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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