श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।
पद पदार्थ
तस्मात् – उपर्युक्त कारण से
त्वम् – तुम
उत्तिष्ठ – उठो (लड़ने के लिए)
शत्रून् जित्वा यश: लभस्व – शत्रुओं को परास्त करके यश प्राप्त करो
समृद्धं राज्यं भुङ्क्ष्व – धन-धान्य से युक्त राज्य का भोग करो
मया एव एते पूर्वं निहताः – इन लोगों (जिन्होंने अन्यायपूर्ण कार्य किये हैं) को तो मैंने पहले ही मार डालने की इच्छा कर ली है
सव्यसाचिन् – हे अर्जुन! तुम जो अपने बाएँ हाथ से भी बाण चलाने में समर्थ हो!
निमित्त मात्रं भव – तुम केवल मेरे हाथों में (बाण के समान) निमित्त मात्र बनो
सरल अनुवाद
उपर्युक्त कारण से (लड़ने के लिए) उठो , शत्रुओं को परास्त करके यश प्राप्त करो और धन-धान्य से युक्त राज्य का भोग करो। हे अर्जुन! तुम तो अपने बाएँ हाथ से भी बाण चलाने में समर्थ हो ! इन लोगों को तो मैंने पहले ही मार डालने की इच्छा कर ली है। तुम केवल मेरे हाथों में (बाण के समान) निमित्त मात्र बनो।
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
आधार – http://githa.koyil.org/index.php/11-33/
संगृहीत – http://githa.koyil.org
प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org