१२.१६ – अनपेक्षः सुचि: दक्ष:

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १२

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श्लोक

अनपेक्षः शुचि: दक्ष उदासीनो गतव्यथ : |
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ||

पद पदार्थ

अनपेक्ष: – आत्मा के अलावा किसी अन्य वस्तु की इच्छा न करना
शुचि:- आहार शुद्धि (भोजन सेवन में शुद्धता) होना
दक्ष: – एक विशेषज्ञ होना (शास्त्र में निर्धारित गतिविधियों को करने में)
उदासीन: – उदासीन रहना (अन्य विषयों के प्रति)
गतव्यथ: – दुःख से (जो शास्त्र में निर्दिष्ट गतिविधियों में लगे रहने से उत्पन्न होता है) प्रभावित न होना
सर्वारम्भ परित्यागी – उन गतिविधियों में संलग्न होना शुरू नहीं करता है (जो शास्त्र में निर्धारित नहीं हैं)
य: – वह कर्म योग निष्ठ (कर्म योग का अभ्यासी)
मत् भक्त:- जो मेरे प्रति स्नेह रखता हो
स:- वह
मे प्रिय:- मुझे प्रिय है

सरल अनुवाद

वह कर्म योग निष्ठ (कर्म योग का अभ्यासी) जो आत्मा के अलावा किसी अन्य वस्तु   की इच्छा नहीं रखता है, आहार शुद्धि (भोजन में शुद्धता) रखता है, एक विशेषज्ञ (शास्त्र में निर्धारित गतिविधियों को करने में), उदासीन (अन्य विषयों के प्रति) है, दुःख से (जो शास्त्र में निर्दिष्ट गतिविधियों में संलग्न होने से उत्पन्न होता है) प्रभावित नहीं होता ,जो उन गतिविधियों में (जो शास्त्र में निर्धारित नहीं हैं) संलग्न नहीं होता है और मेरे प्रति स्नेही है, वह मुझे प्रिय है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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