श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
अनादित्वान् निर्गुणत्वात् परमात्माऽयमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।
पद पदार्थ
कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र!
अयं परमात्मा – यह आत्मा (जो शरीर से बड़ा है)
शरीरस्थ: – शरीर में रहते हुए
अनादित्वात् – क्योंकि वह अनादि है और (किसी समय में) निर्मित नहीं है
अव्ययः – अविनाशी है
निर्गुणत्वात् – चूँकि उसमें सत्वम्, रजस् और तमस् जैसे गुण नहीं हैं
न करोति – (शरीर के विपरीत) वह क्रिया (कर्मों) का निवास नहीं है
न लिप्यते – शरीर के गुणों से प्रभावित (और कलंकित ) नहीं होता
सरल अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! शरीर में रहते हुए, यह आत्मा (जो शरीर से बड़ा है) अविनाशी है क्योंकि वह अनादि है और (किसी समय में) निर्मित नहीं है; चूँकि उसमें सत्वम्, रजस् और तमस् जैसे गुण नहीं हैं, (शरीर के विपरीत) वह क्रिया (कर्मों) का निवास नहीं है और शरीर के गुणों से प्रभावित (और कलंकित ) नहीं होता ।
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
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