१३.३० – यदा भूतपृथग्भावम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १३

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श्लोक

यदा भूतपृथग्भावम् एकस्थम् अनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।

पद पदार्थ

भूत पृथग्भावम् – जीवात्माओं और विभिन्न प्रकार के शरीरों जैसे देव, मनुष्य , तिर्यक और स्थावर के संयोजन में विविधता
एकस्थम् – एक ही वस्तु (अतार्थ प्रकृति (पदार्थ))
यदा अनुपश्यति – जब कोई देखता है
तत: एव – उस प्रकृति से ही
विस्तारं च – जब कोई विविध (एक ही प्रजाति के भीतर जैसे पुत्र, पौत्र आदि) रूप देखता है
तदा – तो वह
ब्रह्म – अपनी स्वयं की प्राकृतिक स्थिति को
सम्पद्यते – प्राप्त कर लेता है

सरल अनुवाद

जब कोई जीवात्माओं और विभिन्न प्रकार के शरीरों जैसे देव, मनुष्य , तिर्यक और स्थावर के संयोजन में विविधता को एक ही वस्तु (अतार्थ प्रकृति (पदार्थ)) में देखता है, और जब कोई उस प्रकृति से ही विविध (एक ही प्रजाति के भीतर जैसे पुत्र, पौत्र आदि) रूप देखता है, तो वह अपनी स्वयं की प्राकृतिक स्थिति को प्राप्त कर लेता है।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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