श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् |
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता: ||
पद पदार्थ
कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र!
सहजं कर्म – कर्म योग जो स्वाभाविक रूप से उपयुक्त है [व्यक्तियों की प्रकृति के लिए]
स दोषम् अपि – दोषों के साथ भी
न त्यजेत् – छोड़ा नहीं जा सकता
हि – क्योंकि
धूमेन – धुएँ से
अग्नि: इव – आग की तरह जो चारों ओर से घिरी हुई है
सर्वारम्भा – सभी कर्म जैसे कर्म योग, ज्ञान योग आदि
दोषेण आवृता: – दोषों से घिरे हुए हैं
सरल अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! जो कर्मयोग स्वाभाविक रूप से उपयुक्त है, उसे दोषों सहित भी नहीं छोड़ा जा सकता; क्योंकि जैसे अग्नि धुएँ से घिरी हुई होती है, कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि सभी कर्म, दोषों से घिरे हुए हैं ।
अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी
आधार – http://githa.koyil.org/index.php/18-48/
संगृहीत – http://githa.koyil.org
प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org