१०.१७ – कथं विद्याम् अहं योगी

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १०

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श्लोक

कथं विद्याम् अहं योगी त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥

पद पदार्थ

भगवन् – हे शुभ गुणों के महासागर भगवान्!
योगी अहम् – मैं , एक भक्ति योगी
त्वां – आपको
सदा – हमेशा
परिचिन्तयन् – [आपका] चिंतन करता हुआ

(त्वां – आपको )
कथं विद्याम् – कैसे जानूँ ?
केषु केषु च भावेषु – उन सभी वस्तुओं (जिनका पहले वर्णन नहीं किया गया है)
मया – मेरे द्वारा
चिन्त्य: असि – (उन सभी वस्तुओं के नियंत्रक के रूप में) कैसे ध्यान किया जाये ?

सरल अनुवाद

हे शुभ गुणों के महासागर भगवान! मैं , एक भक्ति योगी , सदा [आपका] चिंतन करता हुआ , आपको कैसे जानूँ ? आप, मेरे द्वारा कैसे, उन सभी वस्तुओं के नियंत्रक के रूप में (जिनका पहले वर्णन नहीं किया गया है) ध्यान किया जाये ?

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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