श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
श्री भगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।
पद पदार्थ
श्री भगवानुवाच – भगवान ने कहा
अर्जुन – हे अर्जुन!
तेजोमयं – कांति का पुंज है
विश्वं – सम्पूर्ण जगत में व्याप्त है
अनन्तं – अनन्त है
आद्यं – सबका मूल है (मेरे अतिरिक्त)
त्वदन्येन – तुम्हारे अतिरिक्त किसी ने
न दृष्ट पूर्वम् – कभी नहीं देखा
यत् इदं मे परं रूपं – मेरा यह श्रेष्ठ विश्वरूप
आत्म योगात् – मेरे सत्यसंकल्प (सभी व्रतों को पूर्ण करने की क्षमता) द्वारा
प्रसन्नेन मया – अत्यन्त प्रसन्न होकर मेरे द्वारा
तव – तुम्हें, जो प्रिय भक्त हो
दर्शितं – दिखाया गया है
सरल अनुवाद
भगवान ने कहा – हे अर्जुन! मेरा यह श्रेष्ठ विश्वरूप, जो कांति का पुंज है, सम्पूर्ण जगत में व्याप्त है, अनन्त है, सबका मूल है (मेरे अतिरिक्त) तथा जिसे तुम्हारे अतिरिक्त किसी ने कभी नहीं देखा है , वह सत्यसंकल्प (सभी व्रतों को पूर्ण करने की क्षमता) वाले मेरे द्वारा अत्यन्त प्रसन्न होकर मेरे प्रिय भक्त तुम्हें, दिखाया गया है।
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
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