श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
श्री भगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।।
पद पदार्थ
श्री भगवानुवाच – श्री भगवान ने कहा
मम इदं यत् रूपं – मेरा यह रूप जो
दृष्टवान् असि – तुमने देखा है
(तत्) सुदुर्दर्शं – वह, किसी के लिए भी देखना बहुत कठिन है
अस्य रूपस्य – इस रूप को
देवा अपि – देवता भी
नित्यं – सदैव
दर्शन काङ्क्षिणः – देखने की इच्छा रखते हैं
सरल अनुवाद
श्री भगवान ने कहा – मेरा यह रूप जो तुमने देखा है, वह, किसी के लिए भी देखना बहुत कठिन है। यहाँ तक कि देवता भी सदैव इस रूप को देखने की इच्छा रखते हैं।
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
आधार – http://githa.koyil.org/index.php/11-52/
संगृहीत – http://githa.koyil.org
प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org