१२.४ – सन्नियम्येन्द्रियग्रामम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १२

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श्लोक

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।

पद पदार्थ

इन्द्रिय ग्रामं सन्नियम्य – नेत्र आदि इन्द्रियों को अपने-अपने कार्यों में लगने से रोकते हैं
सर्वत्र समबुद्धयः – सम बुद्धि वाले होकर सभी शरीरों में स्थित आत्माओं को समान समझते हैं (ज्ञान से)
सर्व भूत हिते रताः – किसी का बुरा नहीं सोचते
[ये तु पर्युपासते – पूजा करते हैं ]
ते – वे भी
मां प्राप्नुवन्ति एव – वे मुक्त आत्मा की स्थिति को प्राप्त होते हैं, जो मेरे समान ही ज्ञानमय स्वभाव वाला होता है

सरल अनुवाद

जो मनुष्य नेत्र आदि इन्द्रियों को अपने-अपने कार्यों में लगने से रोकते हैं, सम बुद्धि वाले होकर सभी शरीरों में स्थित आत्माओं को समान समझते हैं (ज्ञान से) तथा किसी का बुरा नहीं सोचते, वे मुक्त आत्मा की स्थिति को प्राप्त होते हैं, जो मेरे समान ही ज्ञानमय स्वभाव वाला होता है।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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