१५.२.५ – न रूपम् अस्येह तथोपलभ्यते

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १५

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श्लोक

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो  न चादिर्न च संप्रतिष्ठा  |

पद पदार्थ

अस्य – इस वृक्ष का
रूपम् – पूर्वकथित रूप
इह – इस सांसारिक लोक में संसारियों (भौतिकवादी लोगों) द्वारा
तथा न उपलभ्यते – नहीं समझा जाता है , जैसा कि पिछले श्लोकों में बताया गया है।
अन्त: च – अंत भी (इस वृक्ष का)
ना – नहीं समझा जाता है (जैसा पहले बताया गया है कि यह गुणों से परे जाने पर होता है)।
आदि: च – शुरुआत (इस वृक्ष की)
ना – नहीं समझा जाता है (गुणों में आसक्ति के रूप में)।
संप्रतिष्ठा च – वह आधार जिस पर यह खड़ा है
ना – नहीं समझा जाता है (अज्ञान के रूप में )

सरल अनुवाद

इस वृक्ष का पूर्वकथित रूप, जैसा कि पिछले श्लोकों में बताया गया है, इस सांसारिक लोक में संसारियों (भौतिकवादी लोगों) द्वारा नहीं समझा जाता है। (इस वृक्ष का) आदि (गुणों के प्रति आसक्ति के रूप में) नहीं समझा जाता है। (इस वृक्ष का) अंत भी  नहीं समझा जाता है (जैसा कि पहले बताया गया है कि गुणों से परे जाने पर ऐसा होता है)। (इस वृक्ष का) वह आधार  जिस पर यह खड़ा है उसे (अज्ञानता के रूप में) नहीं समझा जाता है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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