१५.३ – अश्वत्थम् एनं सुविरूढमूलम् एवं & १५.३.५ – तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १५

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श्लोक

अश्वत्थमेनं  सुविरूढमूलम्  असङ्गशस्त्रेण दृढेन  छित्वा ||

तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं  यस्मिन् गता  न निवर्तन्ति भूय: |

पद पदार्थ

एनं – पहले समझाया गया
सुविरूढमूलम् – गहराई से स्थिर जड़ वाले
अश्वत्थम् – पीपल वृक्ष (अर्थात, संसार)
दृढेन – दृढ़ (अच्छे ज्ञान होने के कारण)
असङ्ग शस्त्रेण – वैराग्य का हथियार से (तीन गुणों से बने सांसारिक सुखों में)
छित्वा – काटकर
तत:- उस वैराग्य के कारण
यस्मिन् गता: भूय: न निवर्तन्ति तत् पदं – इस संसार में वापस न लौटने का लक्ष्य
परिमार्गितव्यं – खोजना चाहिए

सरल अनुवाद

पहले समझाया गया, गहराई से स्थिर जड़ वाले पीपल वृक्ष को, वैराग्य(तीन गुणों से बने सांसारिक सुखों में) के दृढ़ (अच्छे ज्ञान होने के कारण)हथियार से काटकर, इस संसार में वापस न लौटने के लक्ष्य को खोजना चाहिए।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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