१५.७ – ममैवांशो जीवलोके

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १५

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श्लोक

ममैवांशो  जीवलोके जीवभूत: सनातन: |
मन: षष्ठानीन्द्रियाणि  प्रकृतिस्थानि कर्षति ||

पद पदार्थ

सनातन:- अनादि काल से विद्यमान (हमेशा के लिए)
मम अंश: एव (सन् ) – जीवात्माओं में से एक, जिनमें मेरी विशेषताएँ हैं
जीवभूत: – एक बद्ध जीव (बंधी हुई आत्मा, कर्म से घेरे हुए) होना
जीवलोके – बंधी हुए आत्माएँ रहनेवाली इस लीला विभूति ( भौतिक क्षेत्र)में होते
प्रकृतिस्थानि – प्रकृति(पदार्थ) से प्रभावित शरीर में उपस्थित
मन: षष्टानि इन्द्रियाणि – पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ (त्वचा, मुँह , आँखें , नाक और कान) और छठी इंद्रिय मन, जो इन्हें नियंत्रित करता है
कर्षति – उन्हें कार्य कराती है (कर्म के आधार पर)

सरल अनुवाद

अनादि काल से विद्यमान (हमेशा के लिए) जीवात्माओं में से, जिनमें मेरी विशेषताएँ हैं, एक बद्ध  जीव (बंधी हुई आत्मा, कर्म से घेरे हुई) होकर, बंधी हुए आत्माएँ रहनेवाली इस लीला विभूति ( भौतिक क्षेत्र)में होते प्रकृति(पदार्थ) से प्रभावित शरीर में उपस्थित पाँच  ज्ञान इन्द्रियाँ (त्वचा,  मुँह , आँखें , नाक और कान) और छठी इंद्रिय मन, जो इन्हें नियंत्रित करता है, उन्हें (कर्म के आधार पर) कार्य कराती है ।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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