१६.१५ – आढ्योऽभिजनवान् अस्मि

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १६

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श्लोक

आढ्योऽभिजनवान् अस्मि कोऽन्योऽस्ति  सदृशो  मया |
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञान  विमोहिता : ||

पद पदार्थ

(अहम्) आढ्य: अस्मि – (मैं) स्वाभाविक रूप से धनवान हूँ ;
(अहम्) अभिजनवान अस्मि – (मैं) स्वाभाविक रूप से उच्च पारिवारिक विरासत वाला हूँ;
मया सदृश: क: अन्य अस्ति – (इस संसार में) क्या मेरे जैसा कोई है (जिसने यह सारी प्रसिद्धि और धन अपने प्रयास से प्राप्त किया है)?
(अहम्) यक्ष्ये – (अपनी क्षमता से, मैं) यज्ञ कर रहा हूँ;
(अहम्) दास्यामि – (अपनी क्षमता से, मैं) धर्मार्थ दान दे रहा हूँ;
(अहम्) मोदिष्ये – (अपनी क्षमता से, मैं) आनंदित हूँ (इन प्रसिद्धि आदि के माध्यम से);
इति –ऐसे कहकर
अज्ञान विमोहिता: – ये (राक्षसी) लोग अज्ञानता के कारण भ्रमित हो जाते हैं (यह सोचकर कि वे भगवान की दया के बिना स्वयं ही यज्ञ आदि कर रहे हैं)

सरल अनुवाद

… (मैं) स्वाभाविक रूप से धनवान हूँ; (मैं) स्वाभाविक रूप से उच्च पारिवारिक विरासत वाला हूँ; (इस संसार में) क्या मेरे जैसा कोई है (जिसने यह सारी प्रसिद्धि और धन अपने प्रयास से प्राप्त किया है)? (मैं अपनी क्षमता से,) यज्ञ करता  हूँ, धर्मार्थ दान देता हूँ और (इन प्रसिद्धि आदि के माध्यम से) आनंदित हूँ -ऐसे कहकर ये (राक्षसी) लोग अज्ञानता के कारण (यह सोचकर कि वे भगवान की दया के बिना स्वयं ही यज्ञ आदि कर रहे हैं) भ्रमित हो जाते हैं | 

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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