१७.१५ – अनुद्वेगकरं वाक्यम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १७

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श्लोक

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।

पद पदार्थ

अनुद्वेगकरं – जो दूसरों में द्वेष उत्पन्न न करे
सत्यं – जो सत्य हो
प्रिय हितं च – जो मधुर हो तथा कल्याण करने वाले हो
यत् वाक्यं – ऐसे वचन
स्वाध्याय अभ्यसनं च एव – जो वेदों का निरन्तर अध्ययन/पाठ करते हो
वाङ्मयं तप: – वाणी द्वारा किया गया तप
उच्यते – कहा गया है

सरल अनुवाद

ऐसे वचन बोलना जिनसे दूसरों में द्वेष उत्पन्न न करे, जो सत्य हो, जो मधुर हो तथा जो कल्याण करने वाले हो, तथा जो वेदों का निरन्तर अध्ययन/पाठ करते हो, वे वाणी द्वारा किया गया तप कहा गया है।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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