१७.२७ – यज्ञे तपसि दाने च

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १७

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श्लोक

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।

पद पदार्थ

यज्ञे – यज्ञ में
तपसि – तपस्या में
दाने च – दान में
स्थितिः च – [वे त्रैवर्णिक – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य] दृढ़ रहना ही
सत् इति उच्यते – “सत्” कहा जाता है
तदर्थीयं एव कर्म च – उन त्रैवर्णिकों के लिए जो अनुष्ठान/कर्म (यज्ञ,दान आदि) होते हैं
सत् इति एव – उन्हें भी “सत्” ही
अभिधीयते – कहा जाता है

सरल अनुवाद

यज्ञ,तपस्या और दान में दृढ़ रहना ही “सत्” [वे त्रैवर्णिक – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य] कहा जाता है। उन त्रैवर्णिकों के लिए जो अनुष्ठान/कर्म (यज्ञ,दान आदि) होते हैं उन्हें भी “सत्” ही कहा जाता है।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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