१८.१२ – अनिष्टमिष्टं मिश्रं च

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

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श्लोक

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।।

पद पदार्थ

अनिष्टं – नरक आदि जो दुःख देते हैं (कर्म करने वाले को)
इष्टं – स्वर्ग आदि जो आनंद देते हैं (कर्म करने वाले को)
मिश्रं च – संतान, धन, भोजन आदि जो आनंद और दुःख का मिश्रण देते हैं (कर्म करने वाले को)
त्रिविधं कर्मणः फलं – कर्म के तीन प्रकार के परिणाम
अत्यागिनां – जिन्होंने कर्म के तीन पहलुओं (कर्त्तापन, स्वामित्व और कर्म के परिणाम) को नहीं छोड़ा है
प्रेत्य – कर्म करने के बाद
भवति – होता है
संन्यासिनां तु – जिन्होंने उपरोक्त तीन पहलुओं का त्याग कर दिया है
क्वचित् – कभी
न भवति – (ऐसे परिणाम) नहीं होते हैं

सरल अनुवाद

कर्म करने के बाद, जिन्होंने कर्म के तीन पहलुओं (कर्त्तापन, स्वामित्व और कर्म के परिणाम) को नहीं छोड़ा है, उनके लिए कर्म के तीन प्रकार के परिणाम होते हैं अर्थात नरक आदि जो दुःख देते हैं (कर्म करने वाले को), स्वर्ग आदि जो आनंद देते हैं (कर्म करने वाले को) और संतान, धन, भोजन आदि जो आनंद और दुःख का मिश्रण देते हैं (कर्म करने वाले को); जिन्होंने उपरोक्त तीन पहलुओं का त्याग कर दिया है उन्हें (ऐसे परिणाम) कभी नहीं होते हैं ।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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