१८.२० – सर्वभूतेषु येनैकं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

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श्लोक

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।

पद पदार्थ

येन – जिस ज्ञान के द्वारा
विभक्तेषु – अनेक प्रकार के गुण
सर्व भूतेषु – सभी प्राणियों में है (ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्गीकरण वाले, जो कर्म में लगे हुए हैं)
अविभक्तं – जो (रंग, रूप आदि गुणों में) भिन्न नहीं है
अव्ययं – अपरिवर्तनशील
एकं भावं – आत्मा, जो एक ही अवस्था में है (जाति आदि के आधार पर भिन्न नहीं है)
ईक्षते – देखा जाता है
तत् ज्ञानं – उस ज्ञान को
सात्त्विकं विद्धि – “सात्विक ज्ञान” के रूप में जानो

सरल अनुवाद

उस ज्ञान को “सात्विक ज्ञान” के रूप में जानो, जिसके द्वारा आत्मा को देखा जाता है, जो (रंग, रूप आदि गुणों में) भिन्न नहीं है, अपरिवर्तनशील और एक ही अवस्था में है (जाति आदि के आधार पर भिन्न नहीं है), और जो सभी प्राणियों में है (ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्गीकरण वाले, जो कर्म में लगे हुए हैं)।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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