१८.२१ – पृथक्त्वेन तु यत् ज्ञानं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

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श्लोक

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विदान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।

पद पदार्थ

सर्वेषु भूतेषु – सभी प्राणियों में विभिन्न शरीरों में, जैसे ब्राह्मण आदि
पृथक्त्वेन – उनके विशिष्ट स्वभाव (ब्राह्मण आदि होने) के कारण
पृथग्विदान् – उनके विशेषताओं (जैसे गोरा, काला, लंबा, छोटा) के आधार पर अलग होना
नानाभावान् – विभिन्न प्रकार के आत्माओं के समूहों
यत् ज्ञानं वेत्ति – वह ज्ञान जो जानने में सहायक हो
तत् ज्ञानं – उस ज्ञान को
राजसं विद्धि – राजस ज्ञान (रजो गुण से उत्पन्न ज्ञान) जानो

सरल अनुवाद

वह ज्ञान जो सभी प्राणियों में विभिन्न शरीरों में विद्यमान विभिन्न प्रकार के आत्माओं के समूहों को, जैसे ब्राह्मण आदि; उनके विशिष्ट स्वभाव (ब्राह्मण आदि होने) के कारण तथा उनके विशेषताओं (जैसे गोरा, काला, लंबा, छोटा) के आधार पर जानने में सहायक हो, उसे राजस ज्ञान (रजो गुण से उत्पन्न ज्ञान) जानो।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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