१८.४५ – स्वे स्वे कर्मण्यभिरत:

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

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श्लोक

स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते  नर: |
स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु  ||

पद पदार्थ

स्वे स्वे कर्मणि – अपने वर्ण के अनुसार कर्मों में
अभिरत: – ग्रस्त
नर: – व्यक्ति
संसिद्धिं – मोक्ष का फल
लभते – प्राप्त करता है
स्व कर्म निरत: – जो अपने वर्ण के अनुसार कर्म करता है
यथा सिद्धिं विन्दति तत् – वह किस प्रकार मोक्ष का फल प्राप्त करता है
श्रुणु – सुनो

सरल अनुवाद

अपने वर्ण के अनुसार कर्मों  में ग्रस्त व्यक्ति मोक्ष का फल प्राप्त करता है; अब (तुम मुझसे ) सुनो कि जो अपने वर्ण के अनुसार कर्म  करता है, वह किस प्रकार मोक्ष का फल प्राप्त करता है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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