१८.४६.५ – श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

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श्लोक

श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् |

पद पदार्थ

स्वधर्म: – कर्म योग जो ( शरीर सहित मनुष्य के लिए ) स्वाभाविक रूप से अनुसरणीय है
विगुण: (अपि) – कमियों के साथ भी
स्वनुष्ठितात् – (कभी-कभी) ) अच्छी तरह से अभ्यास किया गया
परधर्मात् – न कि ज्ञान योग जो किसी और द्वारा किया जाना होता है
श्रेयान् – सर्वोत्तम

सरल अनुवाद

कर्म योग का अभ्यास करना सर्वोत्तम है, जो कमियों के साथ भी ,(शरीर सहित मनुष्य के लिए) स्वाभाविक रूप से अनुसरणीय है, न कि (कभी-कभी) अच्छी तरह से अभ्यास किया गया ज्ञान योग, जो  किसी और के द्वारा किया जाना होता है। 

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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