२.१९ – य एनं वेत्ति हन्तारं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<<अध्याय २ श्लोक १८

श्लोक

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌ ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥

पद पदार्थ

य: – वो जो
एनं – आत्मा के बारे में
हन्तारं – कि आत्मा हत्या करता है ( अग्नि के माद्यम से )
वेत्ति – समझता है
य: च: – और वो जो
एनं – आत्मा के बारे में
हतम्‌ – हत्या की जा सकती है
मन्यते – मानते हैं
तौ उभौ – वे दोनों
न विजानीता: – पहचान नहीं पाए
अयं – अग्नि आदि
न हन्ति – हत्या नहीं करता
अयं – आत्मा
न हन्यते (च ) – का हत्या नहीं की जा सकती

सरल अनुवाद

वो जो समझता है कि आत्मा हत्या करता है ( अग्नि के माद्यम से ) और वो जो समझता है कि आत्मा का हत्या की जा सकती है, वो दोनों आत्मा के बारे में पहचान नहीं पाए | अग्नि कभी आत्मा का हत्या नहीं करता, न ही आत्मा का हत्या की जा सकती है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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